Sunday, April 12, 2015

बुधइ चला गया।

                                                                  बुधइ चला गया।
 

किस बात का रोना और कैसा पछतावा। मैं जोशी जी को यही समझा रहा था। भला बुधइ जैसों के न रहने से किसी को क्या क्षति पहुंच सकती है। उस जैसे न जाने कितने प्रतिदिन काल के मुख में समा जाते होंगे। पर जोशी जी थे की उदासी की चादर और कस कर ओढते चले जा रहे थे। संभ्रांत भारत के गतिमान जीवन के पढ़े-लिखे और उद्यमी वर्ग के किसी सदस्य से ऐसे व्यवहार की आशा मुझे तो न थी।

बुधइ के छोटे भाई, लल्लन, को भली-भाँती स्मरण है की उसने अपने अन्तिम समय में क्या कहा था। जोशी जी ने उसे अपने छोटे भाई की भाँती सीने से चिपका लिया और स्वयं भी फूट-फूट कर रोने लगे। बहुत रुंआसे स्वर में उसने जोशी जी को बताया की कैसे बुधइ ने फसल चौपट हो जाने के कारण पिछले १ हफ्ते से भोजन-पानी छोड़ ही दिया था। कल रात भी बड़ी कठिनाई से बड़ी बेटी, रूपा, के मिन्नतें करने पर १ रोटी खाई थी। लल्लन के कंधे पर सिर रखकर देर रात तक रोता रहा। सुबह जब रूपा ने किवाड़ हठपूर्वक खोला तो उसकी चीख गले में ही रह गयी। जिस विवाह के जोड़े में बुधइ ने रूपा को विदा करने का स्वप्न संजोया था, उसी को फंदा बनाकर वह छत से झूल गया था।

बिस्मिल नाका की कुल जनसंख्या १,००० से अधिक नहीं हैं। कोई ७०-८० परिवार होंगे और सबके सब किसानी करते हैं। कदाचित् ही कोई होगा जो जोशी जी को न जानता हो। जोशी जी पिछले १० सालों से बिस्मिल नाका और आस-पास के दूसरे गाओं में खेती में आने वाली समस्याओं का अध्ययन कर रहे हैं। उन्होंने जिले के संबद्ध अधिकारियों को निरंतर इन समस्याओं से अवगत् कराया है और किसानों को उचित सहायता दिलाने के लिये आंदोलन और प्रयास किये हैं। बरसों से चले आ रहे सूखों ने किसानों की कमर तोड़ रक्खी है। लोग आधे पेट सोने को विवश हैं। नगद और बचत के नाम पर किसी के पास कुछ भी नहीं है। प्रत्येक वर्ष पुराना उधार चुकाए बिना नया ऋण लेने को किसान अभिशप्त है।

कुछ ही दिनों पहले की बात है जब पड़ोस के गाँव के अपने जाननेवाले एक साहुकार के यहां रूपा का विवाह निश्चित किया था बुधइ ने। सारा परिवार बहुत प्रसन्न था और निर्धनता की पराकाष्ठा पर पहुँच जाने के पश्चात भी विवाह की भागमभाग में लगा हुआ था। जोशी जी से प्रतिदिन ही बुधइ कोई ना कोई जानकारी लिया करता था। उसे विश्वास था की इस बार की दलहन की उपज उसे अच्छा लाभ देगी और विवाह के सभी व्यय वह स्वयं ही वहन कर लेगा। क्या भारत के अनगिनत गाओं में ऐसे सपनों का तानाबाना बुनते और अच्छी पैदावार की कल्पना किये बैठे करोड़ों कृषक बंधु नहीं होंगे?

होली के बाद फसल काटने की जुगत में थे दोनों भाई। पर यह क्या? उपरवाले ने तो जैसे बुधइ से कोई ऋण वसूली की हो, इतनी अधिक बारिश भेज दी। २ सप्ताह के भीतर ३ बीघा खेत तालाब बन गए, सारी की सारी काटने को प्रस्तुत फसल नष्ट हो गयी और साथ ही जीवन जीने की अंतिम आशा भी बुधइ का साथ छोड़ गयी। बेटी के हाथ पीले करने का वचन दे चुका बुधइ प्रभु की इस लीला का निवाला बना चुका था। देश के हज़ारों अन्य किसानों की भाँति उसने भी इस सर्वनाश का कारण जानने के लिये ईश्वर से स्वयं ही जा कर मिलने का निर्णय कर लिया। 

जोशी जी के बहुत समझाने के बाद लल्लन ने ग्राम विकास अधिकारी से साहयता मांगी। पता चला की साहब तो १० दिनों के लिये किसी क्रीड़ा प्रतियोगिता में भाग लेने राजधानी गये हुए हैं। जोशी जी ने जिला मुख्यालय में ३ दिन धरना दिया तब जाकर जिलाधिकारी कार्यालय से १०,००० की छतिपूर्ती की घोषणा हुई। यह रकम मिलयगी कब कोई नहीं जनता। रूपा का विवाह अब नहीं हो पाएगा ऐसा हर कोई जानता था।

पूरा सभ्य व सम्पन्न समाज मूक दर्शक बना देखता रहा। बुधइ की चिता  जलने के साथ ही समाज की आत्मा का पुनः आत्मदाह हो गया। न ही पिछले सालों में कुछ किया और न ही आगे करेंगे। जब हमारी थाली में दाल-रोटी पहुँच रही है तो "किसने पहुंचाया, कैसे पहुंचाया, आगे पहुंचा पाएगा या नहीं", यह सब सोच कर हम अपनी पेशानी पर बल क्यों दें? किसान मरता है तो मरे, अपनी बला से। हमने तो नहीं मारा ना? ना ही मरवाया। तो हम भला किसानों के हितों की चर्चा और आंदोलनों में क्यूँ माथापच्ची करें?

कौन समझाये यह सब जोशी जी को? बिना बता के ही रो-रो कर आसमान सिर पर उठा रखा है। जो जैसा चल रहा है, चलने दो! हमारे किये वैसे भी कहाँ कुछ होने वाला है

4 comments:

  1. सुन्दर सामयिक रचना......बधाई.....

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  2. Really tragic that so many Budhai die every year in our country. Some 20 years back, when there were no privitisation and jobs were in scarce middle class used to be in same condition, glad that it has improved a lot but compare farming community of developed countries and ours one, hell lot of difference..........May be another 20-30 years will erase this difference...

    -- Pramod Kumar

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  3. Pankaj - there's no point lamenting on the pathetic conditions of farmers. If govt is not doing anything then the mandate is on the social environment (consisting of all of us, community services, scientists, agri experts, etc, etc) - to try and resolve this issue in a scientific manner. I read lots of stories about how (read poor) farmers have harvested crops in dry and barren conditions and have improved their lots. Kise se madad ki aasha nahi rakhni chahiye. Apne bhavishya ke bare main khud hi sochna chahiye. Badalte wakt ke saath soch mein bhi parivartan aana chahiye. Main in kisano ka dukh dard samaj sakta hun. Lekin yeh baat mere palle nahi padti ki jahan desh ke ek kone mein kisan khud his apne bal bute par tarah tarh ke aayaam juta rahe hain aur kheti me naye naye upkaran and prayog kar rahein hain wahin dusri or kuch kisan apni jaan de rah hain... kyun ? kyun ?
    Ek kisan ne apni puri banjar zameen mein (he had lost all his crops due to water scarcity) tamatar ki kheti ki aur record upaj hasil ki. Kaise ? Usne sirf aur sirf apne bal bute pe yeh sab kiya. Of course he took help from others - but only in form of advice. Hamare jitne bhi "budhai" kisaan hain - unhe apni soch badalni hogi. Is vicious cycle se bahar nikalna hoga. Look around what's going on in other parts of the country - Kuchch mein kisan gehu ki fasal uga rahe hai ??? Aap soch sakte hain - are bhai desert mein koi gehu to kya ek dana bhi nahi uga sakte ? Kya kisaan aap mil jul kar koi naya revolution nahi laa sakte ? Kya hum itna bhi nahi soch sakte ? Kya aisee soch ke liye jyada padha likha hona jaroori hai ? Itne sadiyo se kisan kheti karte aa rahe hain.... kya is samasya ka koi hal nahi hai ? Kya kisan itne majboor hain ?
    Ek au r e.g - ek padhe like yuvak ne (Metric pass thereafter did ITI) factory mein naukri karne ka irada badal dala. Usne soch naukri mein koi maza nah hai. Zindagi yun hi khap jayegi. Woh gaya apne gaon ke sarpanch ke paas aur ek darkhast rakhi sarpanch ke saamne. Gaon ke aasp paas bahut sare talaab the - jiski maliki sarpanch aur panchayat ke paas this (Govt property). Usne panchayat se ek talaab leese par le liya. Uske liye usne gramin bank se loan le liya - and initial capital investment se Jhinga (Prawn or lobster) ki kheti ki. Usne idhar udhar se saari information haasil ki - jhinge ke kheti still water (pond) main kaise hoti hai. Bas phir usne piche mud ke nahi dekha.... shuri ke ek do saal mein koi khas fasal nahi hui. Lekin woh data raha. Agle teen (3 yrs) mein use bahut hi achchi fasal mili.... aur 1 cr. rupaya kamaye. Kuch fasal usne local market me bechi aur kuch export kar di...Ab bolo - agar insaan chae - to kya kuch nahi kar sakta ? Usne loan ki bhar payi kar di... aur apni kheti ka vikas kiya. Gaon ke aur yuvako ko protsahan bhi mila....
    Samasya ka hal lana chaiye... Manav roopi jindagi ko yun hi vyarth nahi gavana chahiye....

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    1. You have shown a very important step forward. If farmers are losing, only they can fight and win. Our system is too rotten to achieve any significant overhaul on its own. Farmers will need to be bold as you suggested and work hard with common sense and knowledge to do whatever they want on their own.

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